डायरी के पन्नों से

परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर 1008 श्री रामलाल जी म.सा. का आरूग्गबोहिलाभं के अध्ययनार्थियो को सम्बोधित करते हुए पावन  मंगल उद्बोधन :-

‘आरुग्गबोहिलाभं’ पद आध्यात्मिक उत्क्रांति का उत्प्रेरक है | मानवीय जीवन में ही उसका उद्भव संभव है | मानव ही उस अव्यक्त को व्यक्त करने में समर्थ हो पाता है | यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अव्यक्त को व्यक्त करना अत्यंत कठिन है, पर यह भी उतना ही सच है कि ऐसा होना असंभव की परिधि में नहीं है | पुरुषार्थ साध्य अवश्य है | उस पौरुष को जागृत करने के उपक्रम का ही पर्याय है – ‘आरुग्गबोहिलाभं’

यद्यपि यह उपक्रम नया नही है फिर भी इसे नवीन उपक्रम की संज्ञा दी जा सकती है | आचार्य प्रवर पूज्य गुरुवर्य श्री नानालाल जी म.सा. के समय में भी भीनासर में इस प्रकार का प्रकल्प प्रारम्भ हुआ था, परन्तु वह गति नहीं ले पाया | विचार उसके बाद भी चलते रहे | किसी भी शुभ कार्य में बाधाएं आती है, उनमें कुछ हमारे स्वयं मन की कमजोरी बाधा के रूप में होती है | अनेक बार परिस्थितियां भी रुकावटे खड़ी कर देती है किन्तु सत्य तो यह है कि कमजोर मन पर ही परिस्थितियां आघात पहुंचाती है | उस पर ही उनका वश चलता है | सुदृढ़ फौलादी मानसिक संकल्प पर उसकी चोंटे खरोंच भी नहीं आने देती | यह भी सत्य है कि अनेक बार परिस्थितियां परिष्करण के रूप में अपना कार्य करती है | मैं मध्यवर्ती परिस्थितियों को उसी रूप में देख रहा हूँ | उन परिस्थितियों से छन-छन कर इस प्रकल्प की भावना परिष्कृत होती चली गई | उसी का परिष्कृत रूप है – ‘आरुग्गबोहिलाभं’

चेंगलपेठ, तमिलनाडु में मुमुक्षु शिविर का आयोजन चल रहा था | उस दौरान भावना ने करवट ली | विचार बना कि इस शिविर को क्यों न चातुर्मास काल में निरंतर बना दिया जाए | मैंने अपना विचार साथियों के समक्ष व्यक्त किया | मेरे साथियों ने उसे मूर्त रूप देने में तत्परता दर्शायी | परिणामस्वरूप मदुरान्तकम सन 2012 के पांच मास के चातुर्मास में वह अध्ययन कार्य चलता रहा | उसी दौरान उसे स्थायी रूप देने के भाव उत्प्रेरित हुए, उस पर काफी विचार मंथन भी हुआ | संयमी मर्यादा, कार्य शैली संपादन आदि विषय मुख्य थे | ज्ञान का विकास अवश्य हो, पर चारित्र की परिधि मे | संयम के साथ छेड़छाड़ कर ज्ञान का विकास अवांछनीय है | अंततोगत्वा उसकी परिणति जिस रूप में हुई, वह है – ‘आरुग्गबोहिलाभं’

बोधि यानि अनुभूति | बोधि यानि ज्ञान क्रिया का संगम | ज्ञान से जाने एवं संयम में जीकर उसका अनुभव किया जाए | सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् आचरण के रूप में उसका अनुभवन बने, ऐसी अनुभूति दोष विवर्जित हो, रुग्ण न हो, आरोग्य पूर्ण हो, अत: ध्येय के अनुरूप ही नामकरण किया गया ताकि नाम के साथ-साथ सदा सर्वदा उस ध्येय की स्मृति मन मस्तिष्क में अंकित रहे | ऐसी वैचारिक उद्भावन का नाम है – ‘आरुग्गबोहिलाभं’

इस प्रकल्प का उद्देश्य मात्र विद्या अध्ययन ही नहीं है  अपितु जीवन को सत्य की आंच पर तपा कर निखारना है | हमारा अध्ययन जीवन का बोलता हुआ अध्ययन होना चाहिए | वह अध्ययन जीवन की सच्चाई का स्पर्श कराने वाला होना चाहिए I वह तभी संभव है जब अध्ययन के साथ साथ अधीत विषय आचरित होता हुआ चला जाए | जिससे आत्म बोध प्रखर बनता रहे | इस विचारधारा का ही परिणाम है – ‘आरुग्गबोहिलाभं’

इसके लिए अध्ययनार्थियो से यह अपेक्षा है कि वे अनुशासनबद्धता पूर्वक होकर जीवन की सच्चाइयों को पाने के लक्ष्य को आत्मशोधक  बनाये, उसमे हम लवलीन बन जाये I काम, क्रोध, मद, मत्सर, राग, द्वेष आदि के भाव हमारे से दूर होते हुए चले जाये ताकि जो अव्यक्त है, वह व्यक्त हो सके I हम अव्यक्त सम्यक बोध को प्रकट कर सके एवं उसे दोष रहित बना सके, तभी हम स्वयं के बोध को आरोग्यता दे पाएंगे एवं हमारा सपना साकार होगा – आरूग्गबोहिलाभं का

अभी इसका उद्भव हो रहा है I प्रारम्भ में कुछ कठिनाइयां अनुभूत होती है I नवीन अवस्था से सम्बन्ध स्थापित करने में कुछ अड़चने आती है I किन्तु हमे मनोबल ऊंचा रखना है I सुदृढ़ मनोबल ही हमारी सफलता के द्वार खोल पायेगा I